आज मोबाइल पर ऑनलाइन गेम खेलना बच्चे और युवाओं की पसंद में शुमार है। डिजिटल युग में 'बिन इंटरनेट सब सून' वाली स्थिति है। पिछले दो दशकों में टेक्नोलॉजी ने हमारे जीवन के हर पहलू को प्रभावित किया है और इसे बहुत कंफर्टेबल भी बनाया है। मोबाइल सेलफोन, टैबलेट और स्मार्टफोन जैसी डिवाइस ने छोटे बच्चों में तकनीक की एक्सेसिबिलिटी और उपयोग को बढ़ा दिया है। बच्चों के दोस्त, खेल के मैदान, पार्क, सबकुछ इंटरनेट के एक एप्लीकेशन पर सिमट गया है। आउटडोर गेम्स से ज्यादा तवज्जो अब इनडोर गेम्स को भी नहीं बल्कि इंटरनेट गेम्स (वीडियो गेम) को मिलने लगी है। इंटरनेट पर मिलने वाले रोमांचक ऑनलाइन गेम्स अब बच्चों के दिलों-दिमाग पर हावी हो रहे हैं। हर सेंकड बदलती दुनिया और पल-पल बढ़ता रोमांच, रंग-बिरंगे थीम के साथ म्यूजिक का कॉम्बिनेशन, कंप्यूटर या फिर मोबाइल की एक छोटी सी स्क्रीन पर एक ऐसा वर्चुअल वर्ल्ड, जो बहुत आकर्षक होता है। एक-दूसरे को हराने और जीतने की होड़ में बच्चे लगातार डिवाइस से चिपके रहते हैं। 10 मिनट का गेम कब घंटे-दो घंटों में बदल जाता है उसे पता ही नहीं चलता और यही से शुरू होता है गेमिंग एडिक्शन। यह एडिक्शन ऐसी होती है इन्हें जरूरी काम भी करने से रोकती है। चीन में ढ़ाई करोड़ लोग डिजिटल लत के शिकार हैं, 17 घंटे तक इंटरनेट पर बिताते हैं, ट्वाइलेट तक जाने का वक्त नहीं निकाल पाते। गेम छोड़ने से डरते हैं कि वे हार जाएँगें इसलिए डाइपर का इस्तेमाल करते हैं। इसलिए आजकल 'डायपर वियरिंग गेम' का चलन बढ़ा है।
आजकल ऑनलाइन गेम एक मुनाफे के व्यापार की तरह फैल रहा है। पर इस गेम में जगमगाती लाइटें आँखों को नुकसान पहुँचा रही हैं। कुछ लोग मोबाइल हैंडसेट को इस तरह से पकड़ते हैं, जिससे उनके कान और कंधे दर्द करने लगते हैं।
जो लोग लगातार कंप्यूटर पर बैठे रहते हैं, उन्हें कंप्यूटर विजन सिंड्रोम की शिकायत होती है। कंप्यूटर पर सतत काम करने वालों में से 50 से 69 प्रतिशत लोग इस सिंड्रोम से ग्रस्त हैं। शरीर टूटने लगता है, आँखें लाल होने लगती हैं। इसके अलावा जो लोग सतत मोबाइल का इस्तेमाल करते हैं, उन्हें फैंटम फोन सिंड्रोम की बीमारी होती है। उन्हें हमेशा ऐसा लगता है कि उनका फोन बज रहा है। ऐसे रोगियों को इंटरनेट नशा मुक्ति केंद्र ले जाने की आवश्यकता पड़ रही है। मोबाइल का नेटवर्क का टॉवर ही नहीं बल्कि ट्यूमर के भी सिग्नल हैं। एम्स, नई दिल्ली के एक शोध द्वारा खुलासा किया कि 10 साल से ज्यादा मोबाइल फोन के इस्तेमाल से ब्रेन ट्यूमर का खतरा 33 प्रतिशत तक बढ़ जाता है। मोबाइल फोन कंपनियों द्वारा प्रायोजित शोध में मोबाइल फोन रेडिएशन के खतरे को कम दिखाया जाता है। पेड न्यूज के तर्ज पर ही पेड रिसर्च का चलन बढ़ा है।
मोबाइल फोन से इलेक्ट्रो मैग्नेटिक रे निकलती है। ये तरंगें इंसानों में कैंसर के कारण बन सकती है ब्रेन ट्यूमर भी हो सकता है। यह उतना ही हानिकारक है जितना कि वाहनों से निकलने वाला धुँआ। मोबाइल ऑपरेटर संस्था के मुताबिक वर्ष 2017 में मोबाइल पूरी दुनिया में 520 करोड़ से ज्यादा है अगले तीन वर्षों में भारत में मोबाइल फोन बाजार को तीन करोड़ नए ग्राहक मिलेंगे। आने वाले वर्षों में भारत के 100 करोड़ लोगों पर रेडिएशन का खतरा होगा। कंपनियाँ आवश्यकता की वस्तु के रूप में नए प्रकार की भूख को ईजाद कर हर समय मोबाइल या इंटरनेट से चिपके रहने की पुरजोर वकालत करती है। यह एक प्रकार से 'औद्योगिक आतंकवाद' है। जब सिगरेट या तंबाकू के पैकेट पर कैंसर की चेतावनी के सचित्र संदेश छपते हैं तो मोबाइल के बॉक्स पर क्यों नहीं वाहनों के प्रदूषण के बारे चर्चा होती है पर मोबाइल रेडिएशन से उत्पन्न होने वाली खतरनाक रोगों के बारे में लोगों से क्यों छिपाया जाता है।
हाल में इस विषय पर कई रिसर्च हुई हैं जिनसे यह पता चला है कि टेक्नोलॉजी हमारे बच्चों को फायदा पहुँचाने की बजाए लाँग-टर्म में नुकसान पहुँचा रही है फिर भी बहुत बड़ी संख्या में माता-पिता बच्चों को बेरोकटोक इनका उपयोग करने दे रहे हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि इनके उपयोग से बच्चे स्मार्ट बन रहे हैं और बिज़ी रहते हैं।
अब तो लोग नवजात शिशुओं और टोडलर्स तक के पास इन डिवाइस को रखने लगे हैं जिससे बच्चों का विकास, व्यवहार और सीखने की क्षमता बुरी तरह से प्रभावित हो रही है। टेक्नोलॉजी का प्रभाव छोटे बच्चों पर बड़ों की तुलना में 4-5 गुना अधिक तेजी से होता है और यह उनके स्वाभाविक विकास में कई प्रकार की गड़बड़ियाँ पैदा कर सकता है। गंगाराम अस्पताल के सीनियर कन्सल्टेंट प्रवीण भाटिया के मुताबिक स्टडी में पाया गया है कि डिवाइस और गैजेट्स की वजह से बच्चों में मोटापा तेजी से बढ़ रहा है। यहाँ तक बच्चे डाइबिटीज के भी शिकार हो रहे हैं। ऐसा नहीं है कि ऑनलाइन गेम्स खेलने वाला हर बच्चा गेमिंग एडिक्शन का शिकार है। लेकिन एक्सपर्ट के मुताबिक गेम खेलने का शौक कब एडिक्शन में बदल जाए, इसके लिए माता-पिता को बच्चे की गतिविधियों पर नजर बनाए रखना जरूरी है।
क्यों जरूरी है बच्चों को मोबाइल सेलफोन, टैबलेट, स्मार्टफोन से दूर रखना -
1. दिमाग का तेज विकास: दो से पाँच साल तक बच्चों के दिमाग का विकास बहुत ही तीव्र गति से होता है। बच्चों का दिमाग आकार में लगभग तीन गुना तक हो जाता है और 21 साल का होने तक इसमें फिजिकल बदलाव आते रहते हैं। विकसित हो रहे दिमाग पर टेक्नोलॉजी के ओवरएक्सपोज़र से बच्चों में सीखने की क्षमता में बदलाव, ध्यान न लगना, भोजन ठीक से न करना, आँखें खराब होना, हाइपर एक्टिविटी और स्वयं को अनुशासित व नियमित न रख पाने की समस्याएं पैदा होने लगती हैं।
2. विकास धीमा हो जाना: आज हमारे पास जिस प्रकार की टेक्नोलॉजी है वह बच्चों की मूवमेंट्स को सीमित कर देती है जिससे उनका शारीरिक विकास पिछड़ सकता है। स्कूल जाने वाले तीन बच्चों में से एक में शारीरिक विकास सुस्त दिखता है जिससे उनकी शैक्षणिक क्षमताएँ व योग्यताएँ प्रभावित होती हैं। फिजिकल एक्टिविटी करते रहने से बच्चे फोकस करना सीखते हैं और नई स्किल्स डेवलप करते हैं। 12 साल से कम उम्र के बच्चो के जीवन में टेक्नोलॉजी का दखल उनके विकास व शैक्षणिक प्रगति के लिए दुष्प्रभावी होता है।
3. मोटापा बढ़ना: जिन बच्चों को ये डिवाइसेज़ उनके कमरे में उपयोग करने के लिए दी गईं उनके मोटे होने का रिस्क 30 प्रतिशत तक अधिक पाया गया। मोटे बच्चों में भी 30 प्रतिशत को डायबिटीज होने का और बड़े होने पर पैरालीसिस व दिल के दौरा आने का खतरा बढ़ जाता है।
4. नींद की कमी: 60 प्रतिशत माता-पिता अपने बच्चों के टेक्नोलॉजी के इस्तेमाल की निगरानी नहीं करते हैं और 75 प्रतिशत बच्चों को उनके बेडरूम में टेक्नोलॉजी इस्तेमाल करने की खुली छूट मिली है। नौ से दस साल की उम्र के इन बच्चों की नींद टेक्नोलॉजी के दखल के कारण प्रभावित हो रही है जिससे उनकी पढ़ाई प्रभावित होती हैं।
5. मानसिक रोग: टेक्नोलॉजी के अनियंत्रित उपयोग से बच्चों में डिप्रेशन, एंज़ाइटी, अटैचमेंट डिसॉर्डर, ध्यान नहीं लगना, ऑटिज़्म (Autism), बाइपोलर डिसॉर्डर, उन्माद (Psychosis), और प्रॉब्लम चाइल्ड बिहेवियर (problematic child behavior) जैसी समस्याएं बढ़ती जा रही हैं।
6. आक्रामकता (Aggression): मीडिया, टीवी, फिल्मों और गेम्स में हिंसा बहुत अधिक दिखाई जाती है, जिससे बच्चों में आक्रामकता बढ़ रही है। आजकल छोटे बच्चे शारीरिक और लैंगिक हिंसा के प्रोग्राम और गेम्स के संपर्क में आ जाते हैं जिनमें हत्या, बलात्कार और टॉर्चर के दृश्यों की भरमार होती है। यह बच्चों के विकास को विकृत करती है।
7. डिजिटल स्मृतिलोप (Digital dementia): हाई-स्पीड मीडिया कंटेंट से बच्चों के फोकस करने की क्षमता बुरी तरह से प्रभावित होती है जिससे वे किसी एक चीज़ पर अपना ध्यान केंद्रित नहीं कर पाते और तथ्यों को याद भी नहीं रख पाते। जो बच्चे ध्यान भटकने की समस्या से ग्रस्त हो जाते हैं उन्हें पढ़ाई करने में दिक्कत आती है।
8. लत लगना (Addictions): एक नए रिसर्च के मुताबिक अगर आप बार-बार स्मार्ट फोन चेक करते हैं, दोस्तों से मुलाकात के दौरान भी मोबाइल फोन को दूर नहीं रख पाते, सोते वक्त भी मोबाइल फोन को पास रखते हैं, जब जरूरत नहीं होती तो भी आप मोबाइल फोन उठा लेते हैं तो समझिए कि आप मोबाइल फोन से जुड़े एडिक्शन यानी लत के शिकार हैं और इस लत का असर आपके शरीर और मन पर भी पड़ता है। कानों में दर्द, बेचैनी, घबराहट जैसी शारीरिक और मानसिक परेशानियाँ मोबाइल फोन और इंटरनेट का ज्यादे से ज्यादा इस्तेमाल करने का नतीजा है। ऐसे लोग रात में सोने से पहलेआखिरी काम मोबाइल चेक करते हैं और सुबह उठते ही मोबाइल देखते हैं।
9. रेडिएशन के खतरे: WHO ने मई, 2011 में सेलफोन के 2B कैटेगरी के रेडिएशन रिस्क को संभावित कैंसरकारक बताया है।
10. आँखों पर दबाव (Eye strain): स्मार्टफोन और इसी तरह के गैजेट्स का दुष्प्रभाव सबसे पहले बच्चों की आँखों पर दिखता है क्योंकि वे बैकलिट स्क्रीन को घंटों तक अपलक देखते रहते हैं। इसे कंप्यूटर विजन सिंड्रोम भी कह सकते हैं।
बच्चों एवं किशोरों में साइबर एडिक्शन यानी इंटरनेट और सोशल मीडिया की इस लत को कम करने के लिए ही देश में इंटरनेट डी-एडिक्शन सेंटर्स की जरूरत महसूस की गई। करीब दो साल पहले बेंगलुरु में पहला सेंटर खोला गया, जिसे काफी अच्छा रिस्पॉन्स मिला। हाल ही में दिल्ली के एम्स में भी साइबर एडिक्ट क्लीनिक की शुरुआत हुई है। दरअसल, आज देश ही नहीं, दुनियाभर में इंटरनेट की लत एक बड़ी समस्या बनती जा रही है। खासकर बच्चे-किशोर इसकी गिरफ्त में सबसे ज्यादा हैं।
अंत में हम कह सकते हैं कि, किशोर उम्र के बच्चों की फिजिकल एक्टिविटी को वर्चुअल मीडिया और स्मार्टफोन ने काफी हद तक प्रभावित किया है। बच्चों का ज्यादा समय वीडियो या मोबाइल गेम्स खेलने में बीतता है। आउटडोर गेम्स खेलना कम होता जा रहा है। बच्चे आमने-सामने बातचीत की बजाय व्हाट्सऐप, स्नैपचैट आदि का सहारा ले रहे हैं। फेसबुक पर दोस्तों की फेहरिस्त भले ही बढ़ रही हो, लेकिन रिश्तेदारों या खुद अपने अभिभावकों से मिलना या उनसे बात करने का समय नहीं रहा इनके पास। इससे बच्चों का अकेलापन बढ़ रहा है। वे अवसाद के शिकार हो रहे हैं। इसके लिए कहीं न कहीं अभिभावक भी जिम्मेदार हैं। बच्चों पर ध्यान देने या उनकी जिंदगी में झांकने की जगह वे अपने खाली समय में स्मार्टफोन और इंटरनेट से चिपके होते हैं, जबकि उन्हें बच्चों के साथ ज्यादा से ज्यादा समय बिताने की जरूरत है। उनके साथ डिनर करें। बातें शेयर करें। उनकी समस्याओं या उलझनों को सुलझाने का प्रयास करें। साइबर एडिक्शन से बचाव हैं - रिसर्च या असाइनमेंट के लिए नेट से सीमित मदद लें, इंटरनेट गेमिंग में समय का ध्यान रखें, आउटडोर फिजिकल एक्टिविटी में हिस्सा लें, पैरेंट्स से बात शेयर करें, एडिक्शन की स्थिति में डॉक्टरों से परामर्श लेना चाहिए।